Monday 20 April 2020

पुरुषोत्तम दास टंडन और मौलवी अब्दुल हक

इस पोस्ट में मैं आपकी मुलाकात है दो विपरीत ध्रुवों अर्थात हिंदी और उर्दू के कट्टर समर्थकों से करवा रहा हूं :-अंग्रेजों के समय भारत की लोकप्रिय भाषा हिंदुस्तानी थी हिंदुस्तानी का अर्थ खड़ी बोली जिसमें संस्कृत और फारसी अरबी के मिले-जुले शब्द या कहें हिंदी और उर्दू का मिश्रण हिंदुस्तानी थी
■ सबसे पहले बात मौलवी अब्दुल हक की जोकि उत्तर प्रदेश से थे और वे हैदराबाद राज्य के विश्वविद्यालय में पढ़ाते पढ़ाते उर्दू और फारसी साहित्य के संरक्षक बन गए, उन्होंने उर्दू के प्रचार में जीवन समर्पित कर दिया उन्होंने ब्रिटिश भारत में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मांग करने वाले लोगों का भी विरोध किया, आजादी के बाद में मौलवी हक पाकिस्तान चले गए जहां पर उनके प्रयासों से उर्दू को वहां की राष्ट्रभाषा बनाई गई ,मौलवी हक ने पूरी पाकिस्तान यानी आधुनिक बांग्लादेश में बांग्ला भाषा के समर्थन में आंदोलन का भी घोर विरोध किया, लेकिन फिर भी पाकिस्तान में बांग्ला को उर्दू के साथ दूसरी राजकीय भाषा बना दिया गया
■दूसरी विभूति पुरुषोत्तम दास टंडन भी उत्तर प्रदेश से हैं जिन्हें राजऋषि कहा जाता है। पुरुषोत्तम दास टंडन ने कॉन्ग्रेस और गांधी से मिलकर स्वतंत्रता आंदोलन संग्राम में असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह , किसान आंदोलनों में भाग लिया और स्वतंत्रता पश्चात भारत की *संविधान सभा में सदस्य* के रूप में कार्य किया।
 मौलवी अब्दुल हक का प्रेम उर्दू के लिए था, तो पुरुषोत्तम दास टंडन हिंदी के कट्टर समर्थक माने जाते थे |उन्होंने हिंदी में संस्कृत निष्ठ स्वरूप पर ही बल दिया और अरबी और फारसी के शब्दों की अनदेखी पर बल दिया |संविधान सभा में जब भारत की राजभाषा की बात आई ,तो महात्मा गांधी, नेहरू डॉ राजेंद्र प्रसाद व अन्य हिंदुस्तानी के पक्ष में थे ,लेकिन इन्होंने संस्कृत निष्ठ हिंदी पर बल दिया और यह विजयी भी रहे इनके प्रयासों से हिंदी भारत की राजभाषा और देवनागरी राज लिपि घोषित हुई |आज जो हम नए नोटों पर देवनागरी अंक देख रहे हैं, उनके लिए भी पुरुषोत्तम दास टंडन ने संविधान सभा में घोर प्रयास किए ,परंतु आखिर में हिंदी में अंग्रेजी अंकों को ही स्वीकार कर लिया गया इन्होंने वंदे मातरम को राष्ट्रगीत बनाने के लिए भी अभियान चलाया इन्हें 1961 में भारत का सबसे बड़ा पुरस्कार भारत रत्न प्रदान किया गया|

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